अब फाग की राग बीते दिनों की यादें
रिपोर्ट चारोधाम मिश्रा दावथ रोहतास
दावथ (रोहतास)सरसों के फूल का खिलना व पछुआ हवा की सरसराहट फागुन मास का संकेत दे देती है। एक समय था जब इस मास में रंग-गुलाल के साथ गांवों में फगुआ के गीतों की धूम मचती थी। फागुन के चढ़ते ही गांवों में फगुनाहट सवार हो जाती थी और लोग मस्त माहौल में इस मास का आनंद लेते थे। ढोल की थाप पर मजीरे की खनक गांव के लोग मस्त हो जाते थे। परन्तु अब फाग के राग बीते दिनों की बात होती जा रही है। अब न चौपाल रहा और न ही पहले वाला जोश और न ही फाग का राग। जोगीरा की परंपरा तो लगभग विलुप्ति के कगार पर है।
लोक गायक लालबाबू ब्यास का कहना है कि अब पहले वाली बात नहीं रही। पहले फगुआ गाने के बहाने गांवों में भाईचारा, एकजुटता और आपसी सौहार्द को बल मिलता था। लोग होली के एक सप्ताह पूर्व से ही चौपाल में एकत्रित होकर फाग गीत गाते थे। अब इनकी जगह भोजपुरी व फिल्मी गीतों ने ले ली है। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो रहे लोग खास कर युवा वर्ग को तो अब फाग सुहाता ही नहीं है।
कई वृद्ध लोग बताते हैं कि होली के एक सप्ताह पूर्व से ही जोगीरा के लिए पुरूष का चयन कर नर्तकी के वेश में रखा जाता था। जो फगुआ गायकों के बीच उनके बोल पर नाचते थे और जोगीरा सुनाते थे।
पूर्व उपप्रमुख हरिहर राय, प्रकाश चौबे, भोलानाथ मिश्रा आदि बताते हैं कि फाग गीतों में पति-पत्नी, देवर-भाभी के रिस्तों में हास्य के पुट दिये जाते थे। जैसे अबकी न जाए देव सइंया के फगुनवा में, आज बिरज में होली के रसिया आदि गीतों की धूम रहती थी। वह समय था जब लोगों की टोली दरवाजे-दरवाजे घूम-घूम कर फगुआ गाते हुए आपस में गले मिलते थे। अब तो समय के साथ इसका स्वरूप ही बदला-बदला सा नजर आ रहा है।
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